संस्कार/रीतिरिवाज
हिन्दुओं के 16 संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार विवाह संस्कार होता है।
हिन्दुओं के 16 संस्कार :-
1 गर्वाधान :-
- स्त्री के गर्भ में बीज स्थापित होने के बाद यह संस्कार मनाया जाता है।
- गर्भधारण के लिए पत्नि स्नान की चौथी रात्रि से सोलहवीं रात्रि तक उपयुक्त मानी जाती है।
- मेवाड़ में इस प्रथा को बदूरात प्रथा के रूप में जाना जाता है।
2 पुंसवन :-
इस संस्कार का उद्देश्य पुत्र प्राप्ति है।
इसमें देवताओं की स्तुति कर उनसे पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की . जाती है।
3 सीमान्तोन्यन :- इस संस्कार का उद्देश्य स्त्री को अमंगलकारी शक्तियों से बचाना है।
4 जात कर्म :-
- पुत्र जन्म के समय यह संस्कार किया जाता है।
- नवजात शिशु का मुँह देखकर पिता स्नान कर जात कर्म संस्कार करता था। * वह सोने की चम्मच से दही, घी तथा शहद बच्चे की जीभ पर लगाता था।
- जच्चा के पीहर से शिशु होने पर नाई द्वारा गुड़ के साथ बधाई के रूप में पगल्या भेजते हैं।
5 नामकरण :- शिशु के जन्म के दसवें या बारहवें दिन उसका नामकरण किया । जाता है।
6 निष्क्रमण :- बालक को पहली बार घर से बाहर निकालने की क्रिया को निष्क्रमण संस्कार कहते है। जो जन्म के बारहवें दिन से चौथे मास तक सम्पन्न होता है।
7 अन्नप्राशन :- बालक को पहली बार अन्न का आहार देने की क्रिया को अन्नप्राशन कहते है।
8.चूड़ाकारण/चूडाकर्म (जडुला) :- इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार मुड़वाये जाते है। इसमें शिखा को छोड़कर सिर के सभी बाल व नाखून कटवाये जाते है। यह संस्कार पहले या तीसरे वर्ष में सम्पादित किया जाता है।
9 कर्णबोध :-
- इस संस्कार में शिशु के कान बिंधे जाते है।
- शास्त्रकारों के अनुसार शिशु को रोग आदि से बचाने के लिए तथा कानों में आभूषण पहनाने के लिए यह संस्कार अवश्य करना चाहिए।
- यह संस्कार शिशु के तीसरे या पांचवें वर्ष में किया जाता है।
10 विद्यारम्भ संस्कार :-
- बच्चे द्वारा सर्वप्रथम वर्णाक्षर लिखा और पढ़ा जाना विद्यारम्भ संस्कार कहलाता है। जो पांचवें या सातवें वर्ष में होता है।
- यह संस्कार बुद्धि और ज्ञान से संबंधित है।
11 उपनयन/यज्ञोपवित :-
- इसमें बालक को शिक्षा के लिए गुरू के पास ले जाया जाता है।
- विद्यार्थी को आचार्य द्वारा ब्रह्म विद्या के लिए स्वीकार किये जाने की विधि उपनयन संस्कार है।
- शुद्रो को छोड़कर शेष तीनों वर्गों को उपनयन का अधिकार था।
- यह ब्राह्मण बालक के लिए आठवाँ वर्ष, क्षत्रिय बालक के लिए ग्यारहवाँ वर्ष व वैश्य बालक के लिए बारहवाँ वर्ष था।
12.वेदारम्भ :- गुरू के पास पहुंचकर शिष्य का वेदों का अध्ययन आरम्भ करना वेदारम्भ कहलाता था।
13 केशान्त/गोदान :- ब्रह्मचारी 16 वर्ष के हो जाने पर यौवन में पदार्पण करता था। तब उसकी दाढ़ी व मूंछ को पहली बार कटाया जाता था।
14 समावर्तन :- अध्ययन समाप्ति के बाद ब्रह्मचारी गुरूकुल से अपने घर की ओर प्रस्थान करता था। वह स्नान करके घर की ओर लौटता था। अतः उसे स्नातक कहा गया।
15 विवाह :-
- ब्रह्मचारी का गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना।
16 अन्तेष्टि :- यह जीवन का अंतिम संस्कार है।
विवाह संबंधित संस्कार/रीति-रिवाज
1.संबंध तय करना :-
- सामान्यतः संबंध माता-पिता द्वारा तय किये जाते है।
- इसमें लड़के व लड़की की कुण्डलियाँ मिलाई जाती है।
2 सगाई :-
- संबंध तय हो जाने पर वर पक्ष की ओर से कपड़े, आभूषण, मिठाईयाँ, फल आदि वधू के घर ले जाए जाते है।
- वधू को चौकी पर बैठाकर उसकी गोद भरी जाती है।
3 चिकणी या कोथली :- वर पक्ष की ओर से वधू के लिए जो कपड़े, गहने, मिठाई आदि दी जाती है। उसे पहरावनी, चिकणी या कोथली कहा जाता है।
4 लग्न पत्रिका :- वधू पक्ष की ओर से वर पक्ष को विवाह के लिए लग्न पत्री भेजी जाती है।
5 कुंकुम पत्री :- यह सर्वप्रथम गणेश जी को भेजी जाती है। व बाद में सभी , रिश्तेदारों व मित्रों को भेजी जाती है।
6 इकताई :- दर्जी द्वारा शुभ मुहुर्त में वर व वधू के वस्त्रों का नाप लिया जाना इकताई कहलाता है।
7 हलदायत की पूजा :- वर एवं वधू दोनों को ही अपने अपने घर में गणेश पूजन कर पाटे पर बैठाकर घी पीलाते है इसे पाट बैठाना या बाने बैठान (बन्द्याक बैठाना) कहते है।
8 तेल चढाना :- विवाह से कुछ दिन पहले वर व वधू दोनों को तेल चढ़ाया जाता है।
9 बंदोली/बिंदोरी :- विवाह के दिन या इसके एक दिन पहले वर व वधू की पूरे गाँव में बिंदोरी (नकासी) निकाली जाती है।
10 कांकण बंधन (कांकण डोरा) :-
- वर व वधू के दाहिने हाथ में कांकण डोरा बांधा जाता है। इसमें एक कौड़ी व दो छोटे-छोटे लाख एवं लोहे छल्ले लाल वस्त्र में पिरोकर बांधे जाते है।
- वधू के लिए यह कांकण डोरा वर पक्ष की ओर से भेजा जाता है। जिसे बरी पड़ला के साथ भेजते है।
11 राति जगा :- राति जगा गीतों का समापन कुकड़ी गीतों से होता है।
12 रेवड़ी/घूरा पूजन :- बारात रवाना होने के पूर्व प्रातःकाल स्त्रियों द्वारा रेवड़ी पूजन किया जाता है।
13 बत्तीसी नूतना :- वर व वधू की माता अपने पिहर वालों को निमंत्रण देने व पूर्ण सहयोग की कामना प्राप्त करने जाती है।
14 मायरा/भात :-
- मायरा मामा देता है।
- मामा द्वारा वधू की माता के लिए लायी गई ओढ़नी बालाचूनड़ी कहलाती है।
- मामा द्वारा वधू के लिए लायी गई ओढ़नी कँवरजोड़ कहलाती है।
15.मूठ भराई :-
- बारातियों के बीच बैठाकर वर के सामने ताल में रु. रखकर
उसका मुट्ठी भर कलदार रूपये लेने को कहा जाता है।
विशेष :-
बारात के रवाने होते समय उसकी माता वर की आँखों में काजल लगाती है और अपने स्तन का दूध पिलाने की क्रिया करती है। यह वर को याद दिलाने के लिए होता है कि- “तूमने मेरा दूध पिया है, अब तुम पराये घर जाकर और वहाँ से दूध लाकर मुझे भूल मत जाना।”
16 दूंट्या :- बारात रवाना होने के पश्चात् वर घर के घर में महिलाओं के द्वारा किया जाने वाला स्वांग या नाटक -ट्या कहलाता है।
17 सामेला/मधुपर्क :- वर के वधू के घर पहुंचने पर वधू का पिता अपने संबंधियों के साथ वर पक्ष का स्वागत करता है। इसे सामेला/मधुपर्क कहते है। यही बारातियों को नाश्ता कराया जाता है। बारात को जनवासा में ठहराया जाता है।
18 वधू के तेल चढ़ाना :-
- वधू के अंतिम तेल चढ़ाने का दस्तूर बारात के आ जाने पर ही होता है। क्योंकि तेल चढ़ी वधू कंवारी नहीं रह सकती है। तेल चढ़ाने से आधा विवाह मान लिया जाता है।
- “त्रिया तेल हमीर हठ चढ़े न दूजी बार” की कहावत राजस्थान में प्रसिद्ध है।
19 सीठणे : – इन्हें गाली गीत कहते है। जो वधू पक्ष की महिलाएं गाती है।
20 भोजन :- विवाह के अवसर पर वधू पक्ष द्वारा निम्न भोजनों का आयोजन किया जाता है।
i. कंवारी जान का भात
ii. परणी जान का भात
iii. बड़ी जान का भात
iv. मुकलानी :- इसमें घर के सदस्य व घनिष्ठ मित्र ही शामिल होते है।
21 बढ़ार :-
- बढ़ार से तात्पर्य वृहद आहार से होता है।
- कन्या पक्ष द्वारा वर पक्ष व कन्या के संबंधियों को फेरे होने के बाद दूसरे दिन सामूहिक प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। जिसे बढ़ार कहा जाता है।
22 तोरण :- प्राचीन काल में तोरण मारना वीरता व विजय का प्रतीक माना जाता था।
23 पोल पात बारहट :- सामन्ती युग में तोरण के अवसर पर चारणों व भाटों का नेग दिये जाते थे। इसे पोल पात बारहट कहा जाता था।
24 सास द्वारा दही देना :- वर जब तोरण मारकर घोड़ी से उतरता है तब वधू की माता उसके माथे पर दही तथा सरसों का टीका लगाती है। इसी समय अन्य स्त्रियाँ कामण गीत गाती है। कामण का अर्थ होता है – जादू-टोना।
25 मण्डप (चंवरी) :- विवाह स्थल पर बांसों का मण्डप बनाया जाता है।
26 पाणिग्रहण :-
- वर द्वारा वधू का हाथ पकड़ना पाणिग्रहण कहलाता है।
- वधू का मामा वधू को ले जाकर वधू का हाथ वर के हाथ में रखकर हाथ जोड़ता है। इसे हथलेवा जोड़ना भी कहते है।
27 अभयारोहण :- वधू का दाहिना पैर पत्थर पर रखवाकर उसका पतिव्रत्व पत्थर की भांति दृढ़ रहने का मंत्र कहलवाया जाता है। इस प्रक्रिया को अभयारोहण कहते है।
28 परिणयन :-
- वर और वधू अग्नि को साक्षी मानकर फैरे लेते है। इस प्रक्रिया को भाँवर भी कहा जाता है।
- पहले तीन फेरो में वधू आगे रहती है। व चौथे फेरे में वर आगे रहता है।
- चौथे फेरे तक वधू वर के दायें में बैठती है, परन्तु इसके बाद वह वर के बायीं ओर बैठती है। स्त्रियाँ इस समय यह गीत गाती है”पहले फेरे बाबा री बेटी, दूजे फेरे भुआ ही भतीजी। तीजे फेरे मामा ही भांजी, चौथे फेरे हई रे पराई।।”
29 सप्तपदी :- वर व वधू का सात कदम साथ चलना सप्तपदी कहलाता है।
30 लाजाहोम :- फेरों के समय अग्नि में धान की खीलों की आहुति देना लाजाहोम कहलाता है।
31 ध्रुवदर्शन :- फेरों के बाद वर-वधू को ध्रुव तारे का दर्शन कराया जाता है।’
32 कन्यादान :- फेरों के बाद हथलेवा छुड़ाया जाता है। हथलेवा छुटते समय वधू का पिता कन्यादान करता है। इस समय वधू निकट संबंधी भी वधू को उपहार देते है।
33 कन्यावल :- विवाह के दिन वधू के माता-पिता, बड़े भाई-बहिन आदि उपवास रखते है। * कन्यादान के बाद ही वे कन्या का मुँह देखकर भोजन करते है। इसे कन्यावल अथवा अखनाल रखना कहा जाता है।
34 जुआ जुई :-
- विवाह के दूसरे दिन प्रातः वर को कंवर कलेवे के लिए वधू के घर मांडे में बुलाया जाता है।
- दोपहर में वर-वधू को जुआ जुई खेलाया जाता है। (वर-वधू में अंगूठी जीतने की प्रतियोगिता)
35 पहरावणी/रंगबरी/उपहार देना :- वधू का पिता वर के पिता को आभूषण, वस्त्र व बरतनों की सूची देता है।
36 समठुणी :- बारातियों को भी वधू पक्ष की ओर से अपनी क्षमता के अनुसार कुछ उपहार दिये जाते है। जिसे समठुणी कहा जाता है।
37 कोयलड़ी :- विदाई के अवसर पर स्त्रियों द्वारा वधू को विदा करने के लिए गाये जाने वाले विदाई गीत ।
38 बारणा रोकना :- यह वर की बहन या बुआ (सवासणियाँ) द्वारा किया जाता है। जिसमें ये वर-वधू को घर में प्रवेश होने से रोकती है। कुछ दक्षिणा लेकर ही घर में प्रवेश होने देती है।
39 औलन्दा/औलंदी :- वधू के साथ उसके पिहर से छोटा भाई/बहिन या निकट संबंधी आता है। वह औलन्दा/औलंदी कहलाता है।
40 माण्डा झाकना :- दूल्हे का प्रथम बार ससुराल आना माण्डा झाकना कहलाता है।
41 मुकलावा/गौना :- यदि वधू नाबालिग हो, तो वधू के बालिग होने के पश्चात् पूर्ण रीति-रिवाज के साथ वधू की विदाई मुकलावा/गौना कहलाता है।
42 बिनोरी/बंदोला :- वर-वधू को शादी के बाद महिनों तक ग्रामवासियों द्वारा अपने-अपने घर न्योता देकर भोजन करवाया जाता है।
43 परोजन :- घर में प्रथम व सबसे बड़ी बालिका होने पर उसका कर्ण छेदन किसी लड़के के विवाह के अवसर पर ही आयोजित किया जाता है। यह संस्कार परोजन कहलाता है।
44 साध :- राज्य के कुछ क्षेत्रों व जातियों में गर्भ जब नौ माह का हो जाता है। तब साध पूजा की जाती है।
विशेष :-
मुगधणा :- भोजन पकाने के लिए लकड़ियाँ जो विनायक स्थापना के बाद लायी जाती है मुगधणा कहलाती है।
गमी संस्कार
1 बैकुण्ठी :- यह बांस की बनी अर्थी होती है। जिस पर शव को रखकर शमशान घाट ले जाया जाता है।
2 बखेर अथवा उछाल :- किसी सम्पन्न व्यक्ति मृत्यु हो जाने पर उसकी बैकुण्ठी ले जाते समय रास्ते में बैकुण्ठी के आगे रूपये, पैसे आदि लुटाये जाते है। इस रश्म को बखेर कहते है।
3 आघेटा :- घर और शमशान तक की यात्रा के बीच में चौराहे पर बैकुण्ठी की दिशा परिवर्तन किया जाता है। इसे आघेटा कहा जाता है।
4 शव-दाह/अंत्येष्टी :- इसमें शव को शमशान घाट में लकड़ियों की चिता पर लिटाकर शव दाह किया जाता है।
5 सातरवाड़ा :- अंतिम संस्कार होने के उपरांत अंत्येष्टी में गये व्यक्ति स्नान आदि कर मृत व्यक्ति के घर जाते है। व मृत व्यक्ति के परिवार वालों को धैर्य बंधाकर सान्त्वना देते है।
6 फूल चूनना :- दाह संस्कार के तीसरे दिन मृतक के संबंधी शमशान जाकर उसके दांत व अस्थियाँ एकत्रित कर एक थैली या कुल्हड़ में लाते है।
7 तिया :- मृत्यु के तीसरे दिन उठावे की बैठक या तिये की बैठक की जाती है।
8 पगड़ी बांधना :- मौसर के दिन ही मृत व्यक्ति के बड़े पुत्र को उसके उत्तराधिकारी के रूप में पगड़ी बांधी जाती है।
9 नुकता/खर्च/बारहवाँ/मौसर :-
- मृत्यु के बाहरवें दिन मृत्युभोज का आयोजन किया जाता है। जिसे मौसर कहा जाता है।
- कभी-कभी व्यक्ति अपने जीते-जी अपने मृत्युभोज का आयोजन करवाता है। इसे जौसर कहा जाता है।
10 पानीवाड़ा :- यदि किसी की मृत्यु किसी दूसरे स्थान पर हो जाती है और उसकी मृत्यु के समाचार आते है, तो परिवार के सदस्य अपने संबंधियों व मित्रों को समाचार भेजते है कि अमुक के मृत्यु के समाचार आये है, अतः आज अमुक स्थान पर पानीवाड़ा होगा उस स्थान पर सभी लोग इकट्ठे होते है और स्नान करके मृतक के परिवारजनों के प्रति सहानुभूति प्रकट करते है। इस प्रकार के स्नान को पानीवाड़ा कहते है।
राजस्थान में प्रचलित प्रथा व कुरीतियाँ
1 सती/सहगमन/सहमरण/अन्वारोहण प्रथा :-
- राजस्थान में सतीप्रथा की सर्वप्रथम जानकारी 861 ई. के घटियाला शिलालेख (जोधपुर) से मिलती है। जिसमें सेनापति राणुका की पत्नि संपल देवी सती हुई।
- सतीप्रथा पर सर्वप्रथम रोक राज्य में 1822 ई. में बूंदी रियासत के शासक विष्णुसिंह ने लगाई।
- ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राम मोहनराय के प्रयासों से 1829 ई. में लार्ड विलियम बैन्टिग ने सतीप्रथा निवारण अधिनियम बनाया। जिसके तहत् सर्वप्रथम रोक कोटा रियासत ने लगायी।
- हाड़ौती में इस प्रथा को चार्ल्स विलकिन्स ने बंद किया था।
- राजस्थान में अंतिम सती कैप्टन मोहनसिंह की पत्नि रूपकंवर (दिवराला गाँव, सीकर (1987 ई.)) थी। इस सती महिमा कांड के बाद राजस्थान के सभी सती मेलों पर रोक लगा दी गई।
2 महासती/अनुमरण :-
- पति की किसी ज्ञात वस्तु के साथ सती होना महासती कहलाता है।
- मृत पुत्र के साथ भी स्त्रियाँ सती होती थी जिसे माँ सती कहा गया।
3 कन्याओं व बालकों के क्रय-विक्रय पर रोक :-
- इस पर सर्वप्रथम रोक 1831 में कोटा रियासत ने लगाई।
- 16 फरवरी, 1847 को जयपुर राज्य ने इस व्यापार को अवैध घोषित कर दिया।
4 कन्या वध पर रोक :- हाड़ौती के पी.ए. विलकिन्स के प्रयासों से 1833-34 में क्रमशः कोट-बूंदी रियासत ने इस पर रोक लगायी।
5 दास प्रथा :- दास प्रथा पर रोक लगाने का प्रयास सर्वप्रथम 1562 ई. में अकबर ने किया। * 1832 ई. में लार्ड विलियम बैन्टिक ने दासप्रथा अधिनियम पारित किया। जिसके तहत् सर्वप्रथम रोक कोटा रियासत ने लगाई।
6 डावरिया प्रथा :- राजा, महाराजा, सामंत व जागीरदार अपनी पुत्री के विवाह के अवसर पर अपनी पुत्री के साथ दहेज के रूप में कुछ कुंवारी कन्याओं को भेजते थे जिन्हें डावरी या डावरिया कहा जाता था। (एक के साथ एक या अनेक फ्री)
7 समाधि प्रथा :- समाधि प्रथा पर रोक 1844 ई. में जयपुर के प्रशासक लुडलो ने लगायी।
8 डाकण प्रथा :-
- इसका सर्वाधिक प्रचलन मेवाड़ के जनजातीय क्षेत्रों में है।
- मेवाड़ के शासक स्वरूपसिंह के काल में 1853 ई. में मेवाड़ भील कोर (M.B.C.) के कमाण्डर J.C. ब्रुक ने डाकण प्रथा पर रोक लगायी।
9 विधवा विवाह प्रथा :-
- ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के प्रयासो से 1856 ई. में लार्ड डलहौजी ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनाया।
- चांदकरण शारदा ने “विधवा विवाह” नामक पुस्तक लिखी।
10 बाल विवाह प्रथा :-
- भारत में बाल विवाह सर्वाधिक अक्षय तृतीया/आखातीज/अबुझ सावा पर होते है।
- राज्य में बाल विवाह को रोकने का पहला प्रयास 1885 ई. में जोधपुर के प्रधानमंत्री सर प्रताप ने किया था।
- अजमेर के हरविलास शारदा के प्रयासों से बाल विवाह निरोधक अधिनियम 1929 ई. में पारित हुआ। जो पूरे देश में 1 अप्रैल, 1930 से लागू हुआ।
- यह अधिनियम शारदा एक्ट के नाम से जाना है।
- इस अधिनियम में विवाह की न्यूनतम आयु 18 व 14 वर्ष निर्धारित की गई।
11 दहेज प्रथा :- भारत सरकार ने दहेज प्रथा निवारण अधिनियम 1961 में पारित किया।
12 बंधुआ मजदूर/सागड़ी प्रथा/हाली प्रथा :- सागड़ी प्रथा निवारण अधिनियम 1961 ई. में पारित हुआ।
13 मौताणा प्रथा :- जनजातियों में किसी पुरुष या महिला की अकाल मृत्यु किसी व्यक्ति विशेष यादुर्घटनावश हो जाती है तो उस व्यक्ति के बदले जो रूपया या धन मांगा जाता है। मौताणा कहलाता है। मौताणा उदयपुर संभाग के आदिवासियों में सदियों पुरानी सामाजिक परम्परा है। मौताणा का अर्थ “मरने के बाद खून खराबे के बीच हर्जाना वसूलना” है।
14 चढ़ोतरा प्रथ :- आदिवासी परिवार के किसी महिला, पुरुष की मृत्यु की सूचना मिलते ही उसके परिवार एवं गोत्र के लोग ढोल बजाते हुए तीर-कमान, लाठी-भाले, तलवारें आदि लेकर मृत्यु स्थल पर पहुंचते है। मौके पर मृत्यु अप्राकृतिक पाए जाने पर आरोपित पक्ष पर जो दंड सुनाया जाता है, उसे चढ़ोतरा कहा जाता है।
15 चारी प्रथा :- खैराड़ क्षेत्र में यह प्रथा प्रचलित है। इसमें लड़की के परिवार वाले लड़के के घर वालों से दहेज की तरह नकद राशि लेते है। चारी की इस राशि के लालच में ही लड़की वाले वैवाहिक जीवन को ज्यादा नहीं चलने देते थे और फिर चारी लेकर लड़की को दूसरी जगह भेज देते थे। यह प्रथा कमजोर व पिछड़े वर्ग में ज्यादा प्रचलित है।
16 नाता प्रथा :- राजस्थान में नाता प्रथा एक प्रकार से पुर्नविवाह ही है। नाता संबंधों का एक प्रकार है। इस प्रथा में पत्नी अपने पूर्व पति को छोड़कर किसी दूसरे पुरुष को अपना पति बना लेती है। यह प्रथा अधिकांशतया ग्रामीण क्षेत्रों में जनजाति के लोगों में प्रचलित है।
17 संथारा प्रथा :- संथारा प्रथा का विधान जैन ग्रंथों में उल्लेखित है। इस प्रथा में अन्न, जल त्याग कर समत्वभाव से देह त्याग किया जाता है। संथारा आत्महत्या नहीं है।
18 छेड़ा फाड़ना :-
- इस प्रथा का सर्वाधिक प्रचलन आदिवासियों में भीलों में है।
- इसमें महिला अपनी ओढ़नी का पल्लू फाड़कर अपने पहले पति का दे देती है। एवं दूसरे पति के साथ रहने के लिए चली जाती है।
- महिला के दूसरे पति द्वारा पहले पति को हर्जाने के रूप में दी गई धनराशि हर्जाना राशि कहलाती है।
19 लोकाई :- आदिवासियों में मृत्यु के अवसर पर दिये जाने वाला भोज लोकाई या कांदिया कहलाता है।
20 लीला मोरिया :- आदिवासियों में प्रचलित एक विवाह संस्कार है। इसमें दूल्हे के घर पर दूल्हे को वालर बांधकर खाट पर बैठाकर नृत्य किया जाता है, जिसे लीला मोरिया के नाम से जाना जाता है।