- राजस्थान की जलवायुको प्रभावित करने वाले कारक
1 भूमध्य रेखा से दूरी
2 धरातल का स्वभाव
3 समुद्र से दूरी
4 समुद्र तल से ऊँचाई
5 उच्चावच
ताप पतन दर - धरातल से प्रति 165 मी. की ऊँचाई पर 1°C तापमान कम हो जाता है।
- ग्रीष्म ऋतु में पश्चिमी मरुस्थल का औसत तापमान 40° से 45° के लगभग हो जाता है।
- राजस्थान का औसत तापमान 38° है।
- राजस्थान की औसत वर्षा 52.10 सेमी.
- राजस्थान में सर्वाधिक धूलभरी आंधियां- 1. गंगानगर 2. हनुमानगढ़
- सबसे कम धूलभरी आंधियाँ – झालावाड़
- अरब सागरीय मानसून से राजस्थान में वर्षा कम होने का कारण
1 मानसून का अरावली के समान्तर
2 मरूस्थल में उच्च तापमान के कारण इस मानसून की आर्द्रता समाप्त हो गई।
3 राजस्थान में सर्वाधिक वर्षा बंगाल की खाड़ी की शाखा से प्राप्त करता है। - सर्वाधिक वर्षा वाला भौतिक विभाग – हाड़ौती पठार
- सर्वाधिक वर्षा वाला जिला – झालावाड़
- सर्वाधिक कम वर्षा वाला जिला – जैसलमेर
- सर्वाधिक आर्द्र जिला – झालावाड़
- सर्वाधिक शुष्क जिला- जैसलमेर
- सर्वाधिक वाष्पोत्सर्जन दर वाला जिला – जैसलमेर
- राजस्थान को दो भागों में कौनसी वर्षा रेखा विभाजित करती है – 50 सेमी.
- 50 सेमी. वर्षा रेखा को राजस्थान की जल विभाजक रेखा भी कहते हैं।
- सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान – माउण्ट आबू (सिरोही)
- सर्वाधिक कम वर्षा वाला स्थान – सम (जैसलमेर)
- सर्वाधिक ठण्डा स्थान – माउण्ट आबू (सिरोही)
- सर्वाधिक शुष्क स्थान – फलोदी
- सर्वाधिक गर्म जिला – चुरू
- सर्वाधिक दैनिक तापान्तर वाला जिला – जैसलमेर
- सर्वाधिक वार्षिक तापान्तर वाला जिला – चुरू
मावठ
- भूमध्य सागर से उठने वाले पश्चिमी विक्षोभों से शीतकाल में उत्तरी भारत में होने वाली वर्षा को मावठ कहते हैं।
- मावठ के कारण उत्तरी भारत में शीत लहर का प्रकोप होता है।
- मावठ को गोल्डन ड्रोप भी कहते हैं।
- मावठ रबी की फसल के लिए उपयुक्त है।
- राजस्थान का सबसे बड़ा दिन – 21 जून
- राजस्थान का सबसे छोटा दिन – 22 दिसंबर
- संपूर्ण पृथ्वी पर दिन-रात बराबर -21 मार्च व 23 सितंबर
जलवायु प्रदेश - राज्य को कुल पाँच जलवायु खण्डों में बाँटा गया है
1 शुष्क जलवायु - वर्षा – 0 – 20 सेमी.
- वनस्पति – मरूद्भिद् (जिरोफाइट्स)
- जिले – जैसलमेर, पश्चिमी जोधपुर, बीकानेर, दक्षिण गंगानगर, बाड़मेर
2 अर्द्ध शुष्क जलवायु - वर्षा – 20 – 40 सेमी.
- वनस्पति – स्टेपी (पतझड़ी)
- जिले – उत्तरी गंगानगर, हनुमानगढ़, चूरू, सीकर, झुंझुनूं, नागौर, पाली जालौर, अजमेर
3 उपआर्द्र - वर्षा – 40 – 60 सेमी.
- जिले – जयपुर, अजमेर, दौसा, सिरोही, पाली, अलवर
4 आर्द्र - वर्षा – 60 – 80 सेमी.
- जिले – धौलपुर, करौली, बूंदी, भीलवाड़ा, उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा’
- सागवान के वृक्षों की प्रधानता
5 अति आर्द्र - वर्षा – 80-100 सेमी.
- जिले – कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़
- यहां सघन व सदाबहार वन पाए जाते हैं।
अकाल कहावत
पग पूंगल धड़ कोटड़े, उदरज बीकानेर
भूल्यों चूक्यों जोधपुर, ठाणों जैसलमेर।।
*त्रिकाल/छपनियाँ काल विक्रम संवत् – 1956 (1899 – 1900 ई)
मरू विकास कार्यक्रम - शुरू – सन् 1977-78
- कुल जिले – 16
- केन्द्र सरकार व राज्य सरकार का अनुपात-75:25
- सन् 1986 के बाद यह पूर्णत: केन्द्र सरकार का कार्यक्रम हो गया है।
- कार्य – मरुस्थल के प्रसार को रोकना।
नोट : पश्चिमी मरूस्थलीय प्रदेश में सर्वाधिक वायु अपरदन होता है।
मिट्टियां
- माथुर व सक्सेना के वर्गीकरण के अनुसार राजस्थान में 10 प्रकार
की मिट्टी पाई जाती है।
1 रैतीली बलुई मिट्टी : विस्तार- प्रधानतः जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, बाड़मेर। - इस मृदा में नाइट्रोजन व कार्बन तत्वों की कमी व Ca अधिकता में है।
- यह मृदा बाजरे के लिए उपयुक्त है। मृदा कण मोटे होते हैं। जल
धारण की क्षमता कम।
2 भूरी रेतीली या लाल-पीली रेतीली मिट्टी : विस्तार- सर्वाधिक
विस्तारित मृदा प्रकार। - इस मिट्टी में नाइट्रेट उपस्थित होता है। अतः यहां दलहनी फसलें उपस्थित होती है।
- जिले- गंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर, चूरू, जोधपुर, सीकर,
झुंझुनूं, बाड़मेर (कुछ हिस्सा बाड़मेर का), नागौर ।
3 सिरोजम/धूसर मिट्टी- यहां पर नाइट्रोजन (N) व कार्बन (C) तत्वों की कमी है, लेकिन Ca लवण अधिक नहीं है। - विस्तार- जालौर, सिरोही, पाली, अजमेर, नागौर व जयपुर, सीकर में भी इस मृदा का विस्तार है।
4 पर्वतीय मिट्टी- अरावली पर्वतमाला की तलहटी में। - पर्वतीय मिट्टी कम गहरी होती है।
- पर्वतीय मिट्टी में पहाड़ी ढलानों पर स्थानान्तरित खेती की जाती है।
- उत्तरी पूर्वी भारत में इस तरह की कृषि को झूमिंग खेती कहते हैं।
- राजस्थान में गरासिया जनजाति जो स्थानान्तरित खेती करती है, उसे वालरा कहते है।
- भील इस प्रकार की खेती को दजिया (मैदानी भागों में) या चिमाता (पहाड़ी तलहटी) कहते हैं। खेती- मक्का।
5 लाल दोमट- उत्तरी राजसमंद, पूर्वी प्रतापगढ़ व पूर्वी बांसवाड़ा को छोड़कर सम्पूर्ण उदयपुर संभाग में यह पाई जाती है। - लोह तत्व के कारण मिट्टी का रंग लाल होता है।
- लोहा व पोटाश की अधिकता एवं Ca व P की कमी।
- मक्का, ज्वार की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त।
6 मध्यम काली मिट्टी- पश्चिमी झालावाड़ को छोड़कर शेष कोटा संभाग में मध्यम काली मिट्टी होती है। इस मिट्टी को रेगुड़/रेगुर भी कहते है। - ज्वालामुखी के लावा से निर्मित मृदा है। इस मिट्टी के कण सबसे महीने होते है। अतः जल धारण क्षमता सर्वाधिक है।
- कपास की खेती के लिए यह क्षेत्र उपयुक्त है।
- Caव पोटाश की अधिकता तथा P की कमी होती है।
7 लाल-काली मिट्टी- पूर्वी प्रतापगढ़, पूर्वी बांसवाड़ा, पश्चिमी झालावाड़ व ऊपरमाल पठार (भीलवाड़ा) में पाई जाती है। - इसे बलुई दौमट भी कहते हैं। इसमें P की कमी व लौह तत्व की अधिकता है।
- बागवानी के पौधे (अफीम की खेती) के लिए उपयुक्त ।
8 भूरी मिट्टी- बनास नदी का अपवाह क्षेत्र में यह मृदा मिलती है।
भूरी- लाल + पीली - राजसमंद का उत्तरी भाग, टोंक, भीलवाड़ा, अजमेर, टोंक, सवाई माधोपुर में पाई जाती है।
- P व Ca की कमी तथा N साधारण मात्रा में पाया जाता है।
- यह जौ की खेती के लिए उपयुक्त है, परन्तु जौ सर्वाधिक जयपुर में होता है।
9 कछारी/दोमट/जलोढ़ – बाणगंगा व करौली के मैदानी क्षेत्रों में (गंभीर नदी का क्षेत्र) यह मृदा है। - यहां N तत्व सर्वाधिक है तथा यह राजस्थान की सर्वाधिक उपयुक्त (उपजाऊ) मिट्टी है।
- यह गेहूं, जौ, सरसों के लिए उपयुक्त है। जिले- अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, जयपुर व दौसा।
10 लवणीय मिट्टी- खारे पानी की झीलों के आस-पास का क्षेत्र लवणीय मिट्टी वाला है। - सेम समस्या वाले क्षेत्रों में- हनुमानगढ़, गंगानगर में तथा वस्त्र उद्योग (रंगाई-छपाई) वाले क्षेत्रों में पाली, बालोतरा आदि में।
- कच्छ के रण का आस-पास का क्षेत्र व जालौर का कुछ भाग।
- खड़ीन- मरुभूमि में रेत के ऊंचे-ऊंचे टीलों के समीप कुछ स्थानों पर निचले गहरे भाग बन जाते हैं, जिसमें बारीक कणों वाली मटियारी मिट्टी का जमाव हो जाता है, जिन्हें खड़ीन कहा जाता है क्षारीय एवं लवणीय मिट्टी को ऊसर, क्लर रेही या नमकीन मिट्टी भी कहते हैं।
- माळ- थाली भूमि को राजस्थान में लोक जीवन शब्दावली में माळ कहते हैं। * राजस्थान में सबसे ज्यादा बंजर व अकृषि (खेती योग्य नहीं) भूमि उदयपुर जिले में है। जैसलमेर जिला दूसरे स्थान पर है।
- चम्बल, गंगानगर परियोजना व इंदिरा गांधी नहर के क्षेत्रों में सेम/ जलाधिक्य/जल मग्नता की समस्या उत्पन्न होती है।
- लवणीय व क्षारीय मिट्टी को उपचारित करने में जिप्सम, गंधक, जैविक खाद व उर्वरक उपयोग में लाये जाते हैं।
- काली मिट्टी में चूना व पोटाश की अधिकता होती है, इस कारण यह मिट्टी ज्यादा उपजाऊ होती है।
- पणो- तालाब में या बड़े खड़े में पानी एवं दलदल सूखने पर जमी उपजाऊ मिट्टी की परत को पणो कहा जाता है।
- बांझड़- अनुपजाऊ या वर्षा में बिना जोती गई (पड़त) भूमि को बांझड़ कहा जाता है।
- राजस्थान में सबसे पहले मृदा परीक्षण प्रयोगशाला केन्द्र सरकार की सहायता से जोधपुर जिले में क्षारीय मृदा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित की गई।
- राजाड़ परियोजना- यह परियोजना चम्बल क्षेत्र में सेम की समस्या के समाधान हेतु शुरू की गई है।
- पी.एच. (pH) मान के द्वारा मिट्टी की क्षारीयता व लवणीयता का निर्धारण होता है। मिट्टी का (pH) मान कम होने पर अम्लीय, अधिक होने पर क्षारीय तथा नहीं होने पर उदासीन मिट्टी मानी जाती है।
- मिट्टी की समस्याएं- 1. प्राकृतिक कारण तथा 2. मानवीय कारण।
Water Erosin
1 परत अपरदन (Sheeterosion)- पश्चिम राजस्थान में।
2 अवनालिका अपरदन (Gullyerosion)- चम्बल के अपवाह क्षेत्र में यह क्षेत्र डांग क्षेत्र कहलाते है। - सेम की समस्या- कृत्रिम की समस्या- कृत्रिम जल प्रवाह के क्षेत्र में अर्थात् नहरी क्षेत्रों में जहां भू-परत के नीचे जिप्सम या चूने की चट्टाने हैं। इसके कारण चूना ऊपर आकर सेम की समस्या उत्पन्न करता है। इसके कारण बीज अंकुरित नहीं हो पाते।
- सेम का मुख्य कारण प्राकृतिक हास है।
- यहां वर्तमान में इस समस्या के निवारण के लिए Indo-dutch जल निकास परियोजना चल रही है। यह नीदरलैण्ड की सहायता से चल रही है।
- नर्मदा नहर परियोजना में सम्पूर्ण सिंचाई फव्वारा पद्धति से की जायेगी यह अनिवार्य है।
- क्षेत्रफल की दृष्टि से राज्य में सर्वाधिक व्यर्थ भूमि जैसलमेर (37.0%) जिले में है।
- उपलब्ध क्षेत्र के प्रतिशत की दृष्टि से राजसमंद जिला सर्वाधिक व्यर्थ पठारी भूमि क्षेत्र के अंतर्गत आता है।
- लवणीय परती भूमि का सबसे अधिक क्षेत्र पाली जिले में है।
- मूंगफली पीली मिट्टी के क्षेत्रों में अधिक बोयी जाती है।
- राजस्थान में सामान्य मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला व समस्याग्रस्त मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला क्रमशः जयपुर, जोधपुर में है।
- शीत ऋतु की रात्रियों में तापमान हिमांक बिन्दु तक चले जाने से फसल नष्ट हो जाती है, इसे पाला पड़ना कहते हैं।